रविवार, 4 जनवरी 2015

श्री हरि :

                                                                      श्री हरि :


                                                                  गीता का सार

                              भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के बहाने संसार को समझाया था।

१)  क्यों व्यर्थ चिन्ता करते हो , क्यों किसी से डरते हो। तुम्हें कोई नहीं मार सकता, आत्मा अजर-अमर है।
     तुम क्या लेकर आये थे , क्या लेकर जाओगे , खाली हाथ आये थे , खाली हाथ जाओगे। जो लिया यहीं से            लिया , जो दिया यहीं पर दिया।  जो लिया ईश्वर से लिया तथा जो दिया ईश्वर को दिया। जो पहले किसी            और का था , आगे किसी और का होगा उसे तुम अपना समझकर प्रसन्न हो रहे हो , यही प्रसन्नता तुम्हारे          दुःखो का कारण है।
२( परिवर्तन संसार का नियम है। जिसे तुम मृत्यु समझते हो वही जीवन है। कभी तुम करोड़ों के स्वामी बन           जाते हो , कभी निर्धन और असहाय। अपना-पराया अपने मन से तथा विचार से मिटादो फिर सब तुम्हारा है       और तुम सबके हो।
३) न यह शरीर तुम्हारा है , ना तुम इस शरीर के हो। यह वायु , अग्नि , जल , पृथ्वी और आकाश इन पाँच               तत्वों से बना है तथा इनमें ही मिल जायेगा। आत्मा अजर-अमर है , आत्मा परमात्मा का अंश है , आत्मा           परमात्मा में मिलने वाली वस्तु है।
४) तुम अपने आपको परमात्मा के हवाले करदो  यही उत्तम सहारा है। जो इस सहारे को जानता है वह भय ,             शोक और चिन्ता से मुक्त हो जाता है।
५) जो हुआ सो  अच्छा हुआ , जो हो रहा है वो भी अच्छा ही हो रहा है , जो भविष्य में होगा वो भी अच्छा ही होगा।     तुम भूत का पश्चाताप मत करो , भविष्य की चिन्ता मत करो , वर्तमान तो चल ही रहा है फिर सब अच्छा ही     अच्छा है।

                                                       " बोलो श्री कृष्ण भगवान की जय "



                                                                           प्रार्थना 



                                            हे प्रभु आनन्ददाता ज्ञान हमको दीजिए     । 
                                            शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए       ।  
                                           लीजिए हमको शरण में , हम सदाचारी बनें ।
                                            ब्रम्हचारी धर्मरक्षक , वीर व्रतधारी बनें      । 
                                           हे प्रभु आनन्ददाता ज्ञान हमको दीजिए      । 


                                                       " भजन रूपी प्रार्थना "


 निर्बल के प्राण पुकार रहे         , जगदीश हरे जगदीश हरे     ।
 श्वासों के स्वर झंकार रहे        , जगदीश हरे जगदीश हरे     । 
निर्धन के प्राण पुकार रहे          , जगदीश हरे जगदीश हरे     । 
जब कृपा दृष्टि हो जाती है        , सूखी खेती हरियाती है        । 
इस आस पे जन उच्चार रहे      , जगदीश हरे जगदीश हरे     । 
आकाश हिमालय सागर में       , पृथ्वी पाताल चराचर में      । 
यह मधुर शब्द गुंजार रहे         , जगदीश हरे जगदीश हरे      । 
सुख-दुःख की चिन्ता है ही नहीं , भय है विश्वाश न जाये कहीं। 
छूटे न लगा ये तार रहे              , जगदीश हरे जगदीश हरे     । 
तुम हो करुणा के धाम सदा      , सेवक है राधेश्याम सदा       । 
बस इतना सदा विचार रहे        , जगदीश हरे जगदीश हरे     । 
 निर्बल के प्राण पुकार रहे         , जगदीश हरे जगदीश हरे     ।
 श्वासों के स्वर झंकार रहे        , जगदीश हरे जगदीश हरे     ।
निर्धन के प्राण पुकार रहे          , जगदीश हरे जगदीश हरे     ।
 श्वासों के स्वर झंकार रहे        , जगदीश हरे जगदीश हरे     । 

                                                                   " भजन "

तेरी महिमा किस विधि गाऊँ   , तेरो अंत कहीं ना पाऊँ             । 
सकल जगत के पालनकर्ता     , किस विधि तुमको भोग लगाऊँ। 
गंगा जमुना नीर बहाएं           , किस विधि तोहे स्नान कराऊँ   । 
लक्ष्मी थारे चरणों की दासी    , कौन द्रव्य प्रभु भेंट चढ़ाऊँ         । 
तेरी महिमा किस विधि गाऊँ , तेरो अंत कहीं नहीं  पाऊँ            । 




तेरा रामजी करेंगे बेड़ा पार      , उदास मन काहे को करे। 
नैया तू करदे प्रभु के हवाले      , लहर-लहर प्रभु आप संभाले। 
हरि आप ही उतारे तेरो पार     , उदास मन कहे को करे। 
काबू में मझधार उसी के         , हाथों में पतवार उसी के। 
बाजी जीत लेवो चाहे हार        , उदास मन काहे को करे। 
गर निर्दोष तुझे क्या डर है      , पग-पग पर साथी ईश्वर है। 
जरा भावना से कीजिए पुकार , उदास मन काहे को करे। 
सहज किनारा मिल जायेगा   , परम सहारा मिल जायेगा। 
डोरी सौंप दे उसी के सब हाथ  , उदास मन काहे को करे। 
तेरा रामजी करेंगे बेड़ा पार     , उदास मन काहे को करे।

                                         "तेरी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता "

                                                                   " दोहा "

 १) तेरी मर्जी के बिना     , हे प्रभु मंगल मूल  । 
     पत्ता तक हिलता नहीं , खिले ना कोई फूल।। 
 २) जाको राखे साँईया       , मार सके ना कोय। 
     बाल ना बाँको कर सके , जो जग बैरी होय ।।
 ३) जगत में जिसका , जगत पिता रखवाला । 
     उसको जग में      , कोई नहीं मारने वाला।।
 ४) साँई नजरां फेरियाँ        , तो बैरी सकल जहान   । 
     टुक एक झोंका मेहर का , तो लाखों करत प्रणाम।।  
 ५) सेवा पूजा बन्दगी     , सभी तुम्हारे हाथ      । 
     मैं तो कुछ जानूँ नहीं , मेरी थे जानो रघुनाथ।। 
  ६) दस हजार गज बल घट्यो , घट्यो ना दस गज चीर। 
      वाको दुश्मन क्या करे       , जो सहाय रघुबीर         ।। 
 ७) बुरा जो देखन मैं चला , बुरा ना मिलिया कोय। 
     जो मन देखा आपना   , मुझसे बुरा ना कोय   ।।
 ८) मौ सम दीन ना दीनहित , तुम समान रघुबीर। 
     अस बिचार रघुवंश मणि , हरहु विषम्भव भीर।। 
 ९) दीनानाथ अनाथ को , भलो मिल्यो सँजोग        । 
     या तो अब तारो मोहि , नहिं तेरी हँसी करेंगे लोग।। 
१०) सुना है हमने , निर्धन के धन राम। 
       सुना है हमने , निर्बल के बल राम।। 
११) राधे तू बड़भागिनी      , कौन तपश्या कीन्ह। 
      तीन लोक को नाथ जो , सो तेरे आधीन      ।। 
१२) राधे मेरी स्वामिनी            , मैं राधे को दास   । 
       जन्म-जन्म मोहे दीजियो , वृन्दावन को बास।। 
१३) वृन्दावन सो वन नहीं , नन्द गॉँव सो गॉँव  । 
      बंशीवट सो वट नहीं    , कृष्ण नाम सो नाम।। 
१४) चलो सखी उस देश में , जहाँ बसे बृजराज ।    
       गौरस बेचे हरि मिले   , एक पन्थ दो काज।। 
१५) बृज चौरासी कोस में , चार धाम निज धाम। 
      वृन्दावन और मधुपुरी , बरसानो नन्दगॉँव ।। 
१६) साँई इतना दीजिये , जामे कुटुम्ब समाय। 
      मैं भी भूखा ना रहूँ   , साधु ना भूखा जाय ।। 
१७) श्वाँस-श्वाँस में राम रट , वृथा श्वाँस ना खोय। 
       ना जाने इस श्वाँस का , आना होय ना होय   ।। 
१८) ना कुछ किया ना कर सकूँ , ना कुछ करने योग्य। 
      जो कुछ किया सो आपने    , आप ही करने योग्य।। 
१९) नहीं विधा नहीं बाहुबल , नहीं खर्चन को दाम। 
       मौ से पतित अपंग की , तुम पत राखो राम  ।। 
२०) श्रवण सुयश सुन आयहु , प्रभु भंजन भव भीर । 
       त्राहि-त्राहि आरत्ति हरण  , शरण सुखद रघुबीर।। 
२१) बार-बार वर माँगहूँ      , हरषि देहु श्रीरँग     । 
       पद सरोज अनपायनी , भक्ति सदा सत्संग।। 
२२) कामिहि नारी पियारी जिमि , लोभिहि प्रिय जिमि दाम। 
       तिमि रघुनाथ निरन्तर       , प्रिय लागहु मोहि राम    ।।
२३) राम भरोसे जो रहे        , पर्वत भी हरयाय     । 
       तुलसी बिरला बाग को , सींचत ही कुम्हलाय।। 
२४) अनहोनी होती नहीं    , होनी हो सो होय   । 
       तुलसी भरोसे राम के , निर्भय हो के सोय।। 
२५) राम राजा राम प्रजा       , राम सेठ साहूकार है। 
       बसहु नगरी तपहु वनमें , धर्म को अवतार है  ।। 
२६) धर्मेण हन्यते व्याधि: , धर्मेण हन्यते ग्रहा:     ।
       धर्मेण हन्यते शत्रुः     , यतो धर्मस्ततो  जय :।।












             

                

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