श्री हरि :
गीता का सार
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के बहाने संसार को समझाया था।
१) क्यों व्यर्थ चिन्ता करते हो , क्यों किसी से डरते हो। तुम्हें कोई नहीं मार सकता, आत्मा अजर-अमर है।
तुम क्या लेकर आये थे , क्या लेकर जाओगे , खाली हाथ आये थे , खाली हाथ जाओगे। जो लिया यहीं से लिया , जो दिया यहीं पर दिया। जो लिया ईश्वर से लिया तथा जो दिया ईश्वर को दिया। जो पहले किसी और का था , आगे किसी और का होगा उसे तुम अपना समझकर प्रसन्न हो रहे हो , यही प्रसन्नता तुम्हारे दुःखो का कारण है।
२( परिवर्तन संसार का नियम है। जिसे तुम मृत्यु समझते हो वही जीवन है। कभी तुम करोड़ों के स्वामी बन जाते हो , कभी निर्धन और असहाय। अपना-पराया अपने मन से तथा विचार से मिटादो फिर सब तुम्हारा है और तुम सबके हो।
३) न यह शरीर तुम्हारा है , ना तुम इस शरीर के हो। यह वायु , अग्नि , जल , पृथ्वी और आकाश इन पाँच तत्वों से बना है तथा इनमें ही मिल जायेगा। आत्मा अजर-अमर है , आत्मा परमात्मा का अंश है , आत्मा परमात्मा में मिलने वाली वस्तु है।
४) तुम अपने आपको परमात्मा के हवाले करदो यही उत्तम सहारा है। जो इस सहारे को जानता है वह भय , शोक और चिन्ता से मुक्त हो जाता है।
५) जो हुआ सो अच्छा हुआ , जो हो रहा है वो भी अच्छा ही हो रहा है , जो भविष्य में होगा वो भी अच्छा ही होगा। तुम भूत का पश्चाताप मत करो , भविष्य की चिन्ता मत करो , वर्तमान तो चल ही रहा है फिर सब अच्छा ही अच्छा है।
" बोलो श्री कृष्ण भगवान की जय "
प्रार्थना
श्वासों के स्वर झंकार रहे , जगदीश हरे जगदीश हरे ।
निर्धन के प्राण पुकार रहे , जगदीश हरे जगदीश हरे ।
गीता का सार
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के बहाने संसार को समझाया था।
१) क्यों व्यर्थ चिन्ता करते हो , क्यों किसी से डरते हो। तुम्हें कोई नहीं मार सकता, आत्मा अजर-अमर है।
तुम क्या लेकर आये थे , क्या लेकर जाओगे , खाली हाथ आये थे , खाली हाथ जाओगे। जो लिया यहीं से लिया , जो दिया यहीं पर दिया। जो लिया ईश्वर से लिया तथा जो दिया ईश्वर को दिया। जो पहले किसी और का था , आगे किसी और का होगा उसे तुम अपना समझकर प्रसन्न हो रहे हो , यही प्रसन्नता तुम्हारे दुःखो का कारण है।
२( परिवर्तन संसार का नियम है। जिसे तुम मृत्यु समझते हो वही जीवन है। कभी तुम करोड़ों के स्वामी बन जाते हो , कभी निर्धन और असहाय। अपना-पराया अपने मन से तथा विचार से मिटादो फिर सब तुम्हारा है और तुम सबके हो।
३) न यह शरीर तुम्हारा है , ना तुम इस शरीर के हो। यह वायु , अग्नि , जल , पृथ्वी और आकाश इन पाँच तत्वों से बना है तथा इनमें ही मिल जायेगा। आत्मा अजर-अमर है , आत्मा परमात्मा का अंश है , आत्मा परमात्मा में मिलने वाली वस्तु है।
४) तुम अपने आपको परमात्मा के हवाले करदो यही उत्तम सहारा है। जो इस सहारे को जानता है वह भय , शोक और चिन्ता से मुक्त हो जाता है।
५) जो हुआ सो अच्छा हुआ , जो हो रहा है वो भी अच्छा ही हो रहा है , जो भविष्य में होगा वो भी अच्छा ही होगा। तुम भूत का पश्चाताप मत करो , भविष्य की चिन्ता मत करो , वर्तमान तो चल ही रहा है फिर सब अच्छा ही अच्छा है।
" बोलो श्री कृष्ण भगवान की जय "
प्रार्थना
हे प्रभु आनन्ददाता ज्ञान हमको दीजिए ।
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए ।
लीजिए हमको शरण में , हम सदाचारी बनें ।
ब्रम्हचारी धर्मरक्षक , वीर व्रतधारी बनें ।
हे प्रभु आनन्ददाता ज्ञान हमको दीजिए ।
" भजन रूपी प्रार्थना "
निर्बल के प्राण पुकार रहे , जगदीश हरे जगदीश हरे ।
श्वासों के स्वर झंकार रहे , जगदीश हरे जगदीश हरे ।
निर्धन के प्राण पुकार रहे , जगदीश हरे जगदीश हरे ।
जब कृपा दृष्टि हो जाती है , सूखी खेती हरियाती है ।
इस आस पे जन उच्चार रहे , जगदीश हरे जगदीश हरे ।
आकाश हिमालय सागर में , पृथ्वी पाताल चराचर में ।
यह मधुर शब्द गुंजार रहे , जगदीश हरे जगदीश हरे ।
सुख-दुःख की चिन्ता है ही नहीं , भय है विश्वाश न जाये कहीं।
छूटे न लगा ये तार रहे , जगदीश हरे जगदीश हरे ।
तुम हो करुणा के धाम सदा , सेवक है राधेश्याम सदा ।
बस इतना सदा विचार रहे , जगदीश हरे जगदीश हरे ।
निर्बल के प्राण पुकार रहे , जगदीश हरे जगदीश हरे ।श्वासों के स्वर झंकार रहे , जगदीश हरे जगदीश हरे ।
निर्धन के प्राण पुकार रहे , जगदीश हरे जगदीश हरे ।
श्वासों के स्वर झंकार रहे , जगदीश हरे जगदीश हरे ।
" भजन "
तेरी महिमा किस विधि गाऊँ , तेरो अंत कहीं ना पाऊँ ।
सकल जगत के पालनकर्ता , किस विधि तुमको भोग लगाऊँ।
गंगा जमुना नीर बहाएं , किस विधि तोहे स्नान कराऊँ ।
लक्ष्मी थारे चरणों की दासी , कौन द्रव्य प्रभु भेंट चढ़ाऊँ ।
तेरी महिमा किस विधि गाऊँ , तेरो अंत कहीं नहीं पाऊँ ।
तेरा रामजी करेंगे बेड़ा पार , उदास मन काहे को करे।
नैया तू करदे प्रभु के हवाले , लहर-लहर प्रभु आप संभाले।
हरि आप ही उतारे तेरो पार , उदास मन कहे को करे।
काबू में मझधार उसी के , हाथों में पतवार उसी के।
बाजी जीत लेवो चाहे हार , उदास मन काहे को करे।
गर निर्दोष तुझे क्या डर है , पग-पग पर साथी ईश्वर है।
जरा भावना से कीजिए पुकार , उदास मन काहे को करे।
सहज किनारा मिल जायेगा , परम सहारा मिल जायेगा।
डोरी सौंप दे उसी के सब हाथ , उदास मन काहे को करे।
तेरा रामजी करेंगे बेड़ा पार , उदास मन काहे को करे।
"तेरी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता "
" दोहा "
१) तेरी मर्जी के बिना , हे प्रभु मंगल मूल ।
पत्ता तक हिलता नहीं , खिले ना कोई फूल।।
२) जाको राखे साँईया , मार सके ना कोय।
बाल ना बाँको कर सके , जो जग बैरी होय ।।
३) जगत में जिसका , जगत पिता रखवाला ।
उसको जग में , कोई नहीं मारने वाला।।
४) साँई नजरां फेरियाँ , तो बैरी सकल जहान ।
टुक एक झोंका मेहर का , तो लाखों करत प्रणाम।।
५) सेवा पूजा बन्दगी , सभी तुम्हारे हाथ ।
मैं तो कुछ जानूँ नहीं , मेरी थे जानो रघुनाथ।।
६) दस हजार गज बल घट्यो , घट्यो ना दस गज चीर।
वाको दुश्मन क्या करे , जो सहाय रघुबीर ।।
७) बुरा जो देखन मैं चला , बुरा ना मिलिया कोय।
जो मन देखा आपना , मुझसे बुरा ना कोय ।।
८) मौ सम दीन ना दीनहित , तुम समान रघुबीर।
अस बिचार रघुवंश मणि , हरहु विषम्भव भीर।।
९) दीनानाथ अनाथ को , भलो मिल्यो सँजोग ।
या तो अब तारो मोहि , नहिं तेरी हँसी करेंगे लोग।।
१०) सुना है हमने , निर्धन के धन राम।
सुना है हमने , निर्बल के बल राम।।
११) राधे तू बड़भागिनी , कौन तपश्या कीन्ह।
तीन लोक को नाथ जो , सो तेरे आधीन ।।
१२) राधे मेरी स्वामिनी , मैं राधे को दास ।
जन्म-जन्म मोहे दीजियो , वृन्दावन को बास।।
१३) वृन्दावन सो वन नहीं , नन्द गॉँव सो गॉँव ।
बंशीवट सो वट नहीं , कृष्ण नाम सो नाम।।
१४) चलो सखी उस देश में , जहाँ बसे बृजराज ।
गौरस बेचे हरि मिले , एक पन्थ दो काज।।
१५) बृज चौरासी कोस में , चार धाम निज धाम।
वृन्दावन और मधुपुरी , बरसानो नन्दगॉँव ।।
१६) साँई इतना दीजिये , जामे कुटुम्ब समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ , साधु ना भूखा जाय ।।
१७) श्वाँस-श्वाँस में राम रट , वृथा श्वाँस ना खोय।
ना जाने इस श्वाँस का , आना होय ना होय ।।
१८) ना कुछ किया ना कर सकूँ , ना कुछ करने योग्य।
जो कुछ किया सो आपने , आप ही करने योग्य।।
१९) नहीं विधा नहीं बाहुबल , नहीं खर्चन को दाम।
मौ से पतित अपंग की , तुम पत राखो राम ।।
२०) श्रवण सुयश सुन आयहु , प्रभु भंजन भव भीर ।
त्राहि-त्राहि आरत्ति हरण , शरण सुखद रघुबीर।।
२१) बार-बार वर माँगहूँ , हरषि देहु श्रीरँग ।
पद सरोज अनपायनी , भक्ति सदा सत्संग।।
२२) कामिहि नारी पियारी जिमि , लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरन्तर , प्रिय लागहु मोहि राम ।।
२३) राम भरोसे जो रहे , पर्वत भी हरयाय ।
तुलसी बिरला बाग को , सींचत ही कुम्हलाय।।
२४) अनहोनी होती नहीं , होनी हो सो होय ।
तुलसी भरोसे राम के , निर्भय हो के सोय।।
२५) राम राजा राम प्रजा , राम सेठ साहूकार है।
बसहु नगरी तपहु वनमें , धर्म को अवतार है ।।
२६) धर्मेण हन्यते व्याधि: , धर्मेण हन्यते ग्रहा: ।
धर्मेण हन्यते शत्रुः , यतो धर्मस्ततो जय :।।
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